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About Gilaula-Shravasti in Shravasti Studio Gilaula, Ikauna
श्रावस्ती का इतिहासआदिकालीन श्रावस्ती
श्रावस्ती के प्रागैतिहासिक काल का कोई प्रमाण नहीं मिला है | शिवालिक पर्वत श्रृखला की तराई में स्थित यह क्षेत्र सधन वन व ओषधियों वनस्पतियो से आच्छादित था | शीशम के कोमल पत्तों कचनार के रक्ताभ पुष्प व सेमल के लाल प्रसून की बासंती आभा से आपूरित यह वन खंड प्राक्रतिक शोभा से परिपूर्ण रहता था | यह भूमि पहाडी नालों के जल प्रवाह की कल-कल ध्वनि व पछियों के कलरव से निनादित वन्य-प्राणियों की उतम शरण स्थली रही है | आदिम मानव इन सुरम्य जंगलों में पुर्णतः प्राक्रतिक रूप से जीवनयापन करता था | सभ्यता के विकास के क्रम में इस क्षेत्र में मानवी समाज विकसित हुआ था | आदिम संस्कृति उत्तरोत्तर क्रमशः आर्य संस्कृति में परिवर्धित होती गयी |
अर्वाचीन श्रावस्ती
काल प्रवाह में लगभग ६००० वर्ष बुद्ध पूर्व एक महान प्रतापी राजा मनु हुए थे | राजा मनु ने सम्पूर्ण आर्यावर्त पर एक छत्र शासन स्थापित किया था | सरजू नदी के तट पर एक भब्य नगर का निर्माण रजा मनु ने करवाया था | इसी नगर का नाम अयोध्या हुआ था | राजा मनु ने अयोध्या को राजधानी बनाया | राजा मनु के नौ पुत्र थे –१ इक्षवाक २ नृग ३ धृष्ट ४ शर्याति ५ नारियत ६ प्रांशु ७ नाभानेदिष्ट ८ करुष ओंर ९ पृणध | यही वंश सूर्यवंशी कहलाए | समय आने पर राजा मनु ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य को अपने सभी पुत्रों में विभाजित कर दिया | ज्येष्ठ पुत्र इक्षवाुक को उत्तर –मध्य (काशी-कोसल) का विशाल क्षेत्र शासन हेतु दे दिया था | महाराजा इक्षवाुक से लेकर इसी वंशवली में हुए (भगवान) रामचन्द्र जी तक कोशल राज्य की राजधानी अयोध्यापुरी थी | इक्षवाुक के वंशजो में महाप्रतापी राजा पृथु हुए | समाट पृथु के पश्चात् क्रमशः विश्व्गाश्व ,आर्द्द्व युवनाश्व और श्रावस्त कोसल के हुए | समाट युवनाश्व के पुत्र श्रावस्त ने हिमालय की तलहटी में अचिर्व्ती नदी के तट पर एक सुन्दर नगर का निर्माण कराया था | उन्ही के नाम पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पडा | पूर्व काल खण्ड में ऋषि सावस्थ की तपोभूमि होने के अर्थ में भी इस नगर का नाम श्रावस्ती पडा | इस नगर की भव्यतम परिपूर्णता श्रावस्त के पुत्र राजा वंशक के शासन काल सुंदर नगर का निर्माण कराया था | उन्ही के नाम पर इस नगर का श्रावस्ती पडा | पूर्व काल खंड मे ॠषि सावसथ कि तपोभुमि होने के अरथ gS A सम्राट श्रावस्त के प्रपोत्र कुवलयाश्व के धुंधु नामक असुर का अन्त कर प्रजा का रजन किया । इसी वंश क्रम में महा प्रतापी सम्राट मान्धाता हुए । ये धर्मानुसार प्रजापालक, सप्तद्वीपक चक्रवर्ती सम्राट हुए । सम्राट मान्धाता ने गोदान की प्रथा डाली । इनके दिव्य शासनकाल में मांस भक्षण पूर्ण निषिद्ध था । क्रमशः इसी राजवंश में राजा सत्यव्रत के पुत्र महादानी सत्यव्रती राजा हरिश्चन्द्र हुए । इसी राजवंश से महाराज सगर उनके पुत्र अंशुमान क्रमशः महाराजा दिलीप महाराजा रघु व महाराजा भागीरथ ने अपने शौर्य-पुरूषार्थ से स्वर्णिम इतिहास रच डाला । इसी पीढ़ी में राजा अश्मक राजा मूलक व राजा अज के पुत्र राजा दशरथ ने कोसल-(अवध) पर शासन किया ।
प्राचीन श्रावस्ती
आधुनिकतम शोधों में भी यह स्पष्ट है कि वैदिक संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। इस संस्कृति का विकास अरण्यों में बनी कुटियों, पर्णशालाओं व आश्रमों में हुआ था । हिमालय की कन्दराओं व गुफाओं में मानवी चेतना का महान परिष्कार व उत्थान हुआ था । युगों-युगों से जहाॅ ऋषियों-मुनियों ने अन्तर्नुसन्धान की अलख जगाई थी। उन्हीं के महान प्रताप-पुरूषार्थ से मानवी सभ्यता को महान गौरव-सौन्दर्य, सुख, शान्ति व परिपूर्णता हस्तगत हुई थी। सघन वन से आच्छादित, नदी निर्झरों से परिपूर्ण, प्राकृतिक सुषमा से सुआच्छादित यह पवित्रतम श्रावस्ती क्षेत्र आदिकाल से ही तप-ध्यान व अन्र्नुसन्धान के लिये सर्वथा अति उपयुक्त भूमि रही है। इस प्राकृतिक सुलभता से ही इस क्षेत्र में ऋषियों-महर्षियों का संवास रहा है। महाभारत काल में महर्षि अग्निवेष (आमोद) का आश्रम इसी हिमवत प्रदेश में था । आचार्य धौम्य व उनके शिष्य उपमन्यु का आश्रम भी यहीं था । श्वेतकेतु व महर्षि अष्यवक्र की तपोभूमि यह पवित्र शिवालिक-अरण्य रहा था । योग ऋषि पातंजलि, बाल्यऋषि नचिकेता, ऋषि च्यवन, ऋषि पाराशर व महर्षि वाल्मीकि इत्यादि की मनोरम तपोभूमि श्रावस्ती ही रही है।
पौराणिक काल से भारत वर्ष को महा जनपदों, प्रदेशों, प्रान्तों अथवा अन्तः प्रक्षेत्रों के रूप में, समयानुसार प्रशासनिक व राजनैतिक विभाजन अनेक बार हुआ है। प्राकृतिक धरातल की विषमता के अनुसार उदीप्य व दाक्षिणात्य मुख्य विभाजन है। उदीप्य भारत को आर्यावर्त के नाम से जाना जाता है। पूर्व-पश्चिम समुद्र से उत्तर हिमालय से व दक्षिणी विंध्य पर्वत श्रंृखला से पिरा सम्पूर्ण भू-भाग आर्यावर्त है। सम्पूर्ण आर्यावर्त निम्न पाॅच भागों में विभक्त था- (1) मध्य प्रदेश (2) उत्तरांचल (3) प्राच्य (4) दक्षिणावत (5) उपरांत (पश्चिमी भारत)। फाह्यान (चीनी यात्री) ने इसी को पंच भारत (थ्पअम प्दकपं) कहा है। मध्य देश भारत का हृदय-प्रदेश रहा है। आर्यो एवं बौद्धों के पुरूषार्थ का क्षेत्र मुख्यतः यही क्षेत्र था।
इतिहासकारों ने वायु पुराण को प्रमाणिक-प्राचीनतम ग्रन्थ माना है। इस पुराण में पंचभारत के विभिन्न प्रदेशों के जनपदों का भी परिगणन हुआ है। जिसके अनुसार काशी-कोशल महा जनपद पंचभारत के मध्य देश में स्थित था । जैसा कि उल्लेख है कि-
वत्साःकिसष्णाः र्कुन्वाश्च कुन्तलाः काशि-कोशलाः ।
मध्यदेशा जनपदा प्रायशोअमी प्रर्कीर्तिताः ।।“ (वायु पु.प्.अ45)
महाराजा रामचन्द्र के द्वितीय पुत्र लव की राजधानी श्रावस्ती उत्तर-प्रदेश में स्थित थी।
उत्तरकोसला राज्यं लवस्य च महात्मनः ।
श्रावस्ती लोक विख्याता ............................ ।।“(वायु पु0 उत्त.अ-26-199)
अर्थात कोसल श्रावस्ती की प्राचीनता असंदिग्ध है। हिमालाय से गंगा-सरजू और गण्डकी नदी के मध्य स्थिल भू-भाग का प्राचीनतम नाम कोसल ही है। हिम-नद से पोषित अति-उर्बर सघन वन से युक्त यह विशाल उपत्य का क्षेत्र प्राकृतिक सुरक्षा व उत्तम पर्यावरण से परिपूर्ण विश्व में सर्वोच्चतम प्रदेश है। आचार्य पणिनि की अष्टाध्यायी में भी कोसल का विवरण है। पुराणों तथा बौद्ध ग्रन्थों में प्राचीन भारत के सोलह महा राज्यों में कोशल का स्थान प्रमुखता में वर्णित है। अंगुत्तर निकाय तथा विष्णु-पुराण के अनुसार प्राचीन काल में सम्पूर्ण भारत में निम्न सोलह महाजनपद थे-
1.कुरू ((मेरठ-दिल्ली-थानेश्वर) राजधानी-इंद्रप्रस्थ।
2.पांचाल (बरेली-बदायुं-फर्रूखाबाद) रा0-अहच्छत्र (फर्रूखाबाद)
3.शूरसेन (मथुरा का क्षेत्र/रा.-मथुरा।
4.वत्स (इलाहाबाद का क्षेत्र) रा.-कौशाम्बी-कोसम।
5.कोसल (सम्पूर्ण अवध क्षेत्र) रा.-श्रावस्ती/अयोध्या।
6.मल्ल (देवरिया का क्षेत्र ) रा.-कुशीनगर (कसय)।
7.काशी (वाराणसी क्षेत्र ) रा.-वाराणसी।
8.चेदि (बुंदेलखण्ड) रा.-शुक्तिमती (बाॅदा)।
9.मगध (दक्षिणी बिहार) रा.-गिरिब्रज (राजगिरि)
10.वज्जि (दरभंगा-मुजफ्फरपुर क्षेत्र) रा.-वैशाली
11.अंग (भागलपुर क्षेत्र) रा.-चंपा।
12.मत्स्य (जयपुर क्षेत्र) रा.-विराट नगर।
13.अश्मक (गोदावती-घाटी) रा.-पाण्ड्य।
14.अवंती (पश्चिमोत्तर भारत ) रा.-तक्षशिला ।
15.कर्बोज (कर्बोज क्षेत्र) रा.- राजापुर।
हिमालय की तराई से गंगा व विन्ध्य पर्वत की विशाल सीमा क्षेत्र में स्थित कोशल देश सूर्यवंशी सम्राटों के शौर्य से श्री-समृद्धि के उत्कर्ष को प्राप्त था । सम्पूर्ण काशी-कोशल राज्य, शासन सुविधा के लिये उत्तर-दिशा में विभाजित हुआ । उत्तरी भाग श्रावस्ती से व दक्षिणी भाग अयोध्या से शासित होता था । आचार्य पातंजलि की जन्म भूमि भी इसी क्षेत्र में थी । महाराजा रघु से लेकर श्री रामचन्द्र जी के शासन काल तक अयोध्या को प्रधान राजधानी व श्रावस्ती को द्वितीय राजधानी का गौरव प्राप्त था ।दशरथ पुत्र राजा राम इक्ष्वांक वंश में सर्वश्रेष्ठ युग प्रसिद्ध सम्राट हुए । महाराज रघु द्वारा गोवंश की वृद्धि विपुलता के लिये आरक्षित क्षेत्र गोनर्द (गोण्डा) तक, वन सम्पदा से परिपूर्ण विशाल भू-भाग राजाओं की रमणीक आखेट स्थली रही है। जब श्री रामचन्द्र जी के पुत्र लव उत्तर कोशल के राजा हुए तो उन्होंने श्रावस्ती को मुख्य राजधानी के रूप में विकसित किया । परवर्ती कालों में इसे चन्द्रिकापुरी अथवा चम्पकपुरी के नामों से भी अभिहित किया गया था ।
कोश से लालित अर्थात धन-धान्य से परिपूर्ण समृद्धि से इसका कोशल नाम सार्थक है। कोशल की जनभाषा कोसली या देसी, कही गयी । काल प्रवाह में साहित्यिक सौंदर्य से पूरित पालि-अवधी के नाम से गौरवान्वित हुइ।
बुद्धकालीन श्रावस्ती
प्रसेनजित
महाराजा लव के वंशज महाराज बृहदबल महाभारत संग्राम में मारे गये थे । पीछे इन्हीं सूर्यवंशी राजाओं की 27वीं पीढ़ी में राजा अरिनेमि ब्रहमादत्त के पुत्र प्रसेनजित, कोशल देश के राज्य सिंहासन पर बैठे । प्रसेनजित ब्राहमण धर्म के कट्टर अनुयायी थे । आश्रमों, गुरूकुलों की सेवा में उसेने सैकड़ों ग्राम लगा रखे थे । एक साला, इच्छानांगल, नगरविंद, मनसाहक, वेनागपुर, दंडकप्पक एवं वेणुद्धार विशुद्ध ब्राहमण ग्राम थे । जनुस्सोणि, तोदेटय, तारूक्ख, पोक्खरसादि, लोहिच्य एवं चकी सिद्ध-प्रसिद्ध आचार्य थे । भगवान बुद्ध के भव्य अध्यात्मिक प्रताप में क्रमशः सभी ब्राहमण बुद्ध की परम शरण मंे परम तृप्त हुए । राजा प्रसेनजित व तत्कालीन गणी-मानी ब्राहमणों-आचायों की लोकनाथ बुद्ध के प्रति अगाध श्रद्धा-भक्ति के अनुग्रह पूर्ण श्रद्धा-सुमन सम्पूर्ण त्रिपिटक में सुवासित है। कोसलाधीश प्रसेनजित की अग्रमहिषी महारानी मल्लिका देवी की भगवान बुद्ध के श्री चरणों में अनुराक्ति महान है। सुमंगल विलासिनी, व धम्मपय की अट्ठकथा के एक प्रसंग के अनुसार भिक्षु संघ को अत्याधिक राजकीय संरक्षण सुविधा व दान से, काल नामक एक मन्त्री अहमत था । इसे राजा प्रसेनजित ने मंत्री पद से हटा दिया था । महाराज प्रसेनजित त्रिरत्नों में अगाध श्रद्धा का यह एक प्रमाण है।
कुमार जेत प्रसेनजित की क्षत्रिय महारानी वर्णिका के पुत्र थे । शाक्यों की दासी पुत्री वासभ खतिया प्रसेनजित की पटरानी हुई । इससे उत्पन्न पुत्र विरूड्ढ़क ने युवराज कुमार जेत की हत्या कर दी । क्योंकि कुमार जेत विरूड्ढ़क द्वारा शाक्यों के विनाश की मंशा के विरूद्ध थे । प्रसेनजित ने विरूड्ढ़क को युवराज घोषित किया । एक दिन 80 वर्षीय वृद्ध राजा प्रसेनजित, शाक्य राज्य-मेदलुपं नामक स्थान पर ठहरे भगवान बुद्ध से मिलने हुए । पूर्व की भाॅति बुद्ध के सम्मान में अपना राजचिन्ह राज मुकुटवखड्ग महासेनापति दीर्घकारायण को सौंप दिया । दीर्घकारायण राजचिन्ह व सेना लेकर युवराज विरूड्ढ़क के पास चला गया । ये दोंनों राजा के प्रति बदले की भावना से ग्रस्थ थे । सेनापति के विरूड्ढ़क को राजा बना दिया । बुद्ध से मिलकर प्रसेनजित जब बाहर आये तो वस्तुस्थित समझकर मगध नरेश (भान्जा) अजात शत्रु के पास जाने के लिये पैदल चले । रास्ते में प्रतिकूल आहार से उल्टी-दस्त से पीडि़त हो गये । थके-हारे जब राजगृह पहुॅचे तो नगर द्वार बन्द हो चुका था । बाहर एक सराय में ठहरे, परन्तु रात्रि में ही उनकी मृत्यु हो गयी । प्रातः राजा अजात शत्रु ने सब समाचार जानकर, प्रसेनजित की राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम-क्रिया व श्राद्ध तपर्ण किया । उधर विरूड्ढ़क चमत्कारिक (आकस्मिक बाढ़ के) जल-प्रवाह में मारा गया ।
कोषल साम्राज्य
प्रसेनजित के राज्यकाल में कोशल राज्य उत्तरी पहाडि़यों से लेकर दक्षिण में गंगा तट तक तथा पूर्व में गंडक नदी तक फैला हुआ था । श्रावस्ती का सम्पूर्ण विस्तार 300 योजन था । अट्ठकथाचार्य बुद्धघोष के अनुसार 80 हजार गाॅवों में बसे 57 हजार परिवारों से श्रावस्ती की जनसंख्या 18 करोड़ थी ।
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